Wednesday, August 28, 2013

ज़िंदगी

Indian Classical Dance

साँसों की लय पर नाचती ज़िंदगी
एक सुंदर नर्तकी सी नज़र आती
आल्हादित होने पर
झूम-झूम कर, नृत्य कर

घुँघरूओं के मधुर स्वर,
लय व ताल से जीवंत हो उठती
ज़िंदगी, जिसका एक पाँव धरती पे,
तो दूसरा आकाश पर नज़र आता,
घुँघरूओं के मधुर स्वर में,
झर-झर झरते झरनों की आवाज़ सुनाई देती,
नृत्य की भाव-भंगिमाओं में डूबी ज़िंदगी,
लहराती, बलखाती और इठलाती नज़र आती
नृत्यांगना के हर अंदाज़ में
नवजीवन से भरी नज़र आती ज़िंदगी...
- साधना

Tuesday, August 20, 2013

रक्षाबंधन

rakhi

सावन आया, खुशियाँ लाया
कहीं घटा-घनघोर है छाई
कहीं रिमझिम-रिमझिम फुहारों ने
मोतियों की लड़ी बरसाई
हर घर में हैं खुशियाँ छाई
आया रक्षबंधन का त्यौहार
नाजुक रेशमी बंधनों का त्यौहार

प्रेम के नाजुक रिश्तों का त्यौहार
खुश हो बहन दुआ मांगती, थाल सजाती
हर पल मन ही मन मुस्कुराती
भाई देता वचन ये कि
प्यारी बहना तन-मन-धन से
हर पल दूँगा तेरा साथ
आया राखी का त्यौहार
ऐसा पुनीत पर्व है राखी

जिसमें ना है जाति बंधन
पवित्र प्रेम है झरने सा बहता
आया रक्षाबंधन का त्यौहार...
- साधना

Saturday, August 10, 2013

झरना

Nuuanu Stream near Lili'uokalani Park  ≡  Eric Tessmer, Molokai, Hawaii

निश्छल हो बहता झरना,
कल-कल बहता जाता,

कठोर पर्वतों को भेद बहता,
कुछ भेद भरी बातें कहता जाता,
कुछ अनकही बातें सुनता जाता,
जब झूमकर बारिश आती,

झर-झर बहता जाता।
ऊँचें-नीचे अटपटे पथ पर,

जंगल-जंगल बहता जाता।
पशु-पक्षी धरा-अम्बर को जलमय करता जाता
मानव मन को आनन्दित करता जाता।
धीमे-धीमे मधुर-मधुर

अपनी धुन में बहता जाता।
कई छोटी-छोटी धारों के साथ

जा नदिया में समाता।
अंततः नदिया संग सागर में मिल अपनी मंजिल पाता.

- साधना

Sunday, August 4, 2013

चिरकारी की कथा

The Thinker

महर्षि गौतम का एक महान ज्ञानी पुत्र था। उसका नाम था चिरकारी। वह किसी भी कार्य को करने से पहले उस पर देर तक विचार किया करता था। सोचने की आदत के कारण हर काम में देर हो जाती थी, इसलिए लोग उसे आलसी व मंदबुद्धि कहते थे।

एक दिन की बात है, महर्षि गौतम की स्त्री से एक महान अपराध हो गया। जब ऋषि को पता चला तो वे बहुत कुपित हुए और अपने पुत्र को कहा कि ''बेटा, तू अपनी दुष्कर्मा माता का वध कर डाल।" इस प्रकार बिना विचार किय, ऋषि अपने पुत्र को आदेश देकर स्वयं वन को चले गए।

चिरकारी ने बहुत अच्छा कह कर पिता की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। पर अपने स्वभाव के अनुसार वह सोचता रहा। उसने सोचा पिता की आज्ञा का पालन करूँ या माता की रक्षा। पिता की आज्ञा का पालन करना पुत्र का परम धर्म है और माता की रक्षा करना भी प्रधान धर्म है। उसे कभी पिता का पक्ष उचित लगता तो कभी माता का पक्ष। चिरकारी इसी उलझन में पड़ा रहा।

उधर वन में जब ऋषि का क्रोध शांत हुआ तो उन्हें अपने अनुचित निर्णय पर बहुत पछतावा हुआ, वे पत्नी की वध की कल्पना कर रो पड़े। मन ही मन पछताने लगे कि ''आज मेरे अविवेक ने महान अनर्थ कर डाला ,मेरी पत्नी तो निर्दोष है। फिर उन्हें अपने पुत्र के स्वभाव का ध्यान आया। वे सोचने लगे यदि मेरे पुत्र ने आज विलम्ब किया होगा तो मैं स्त्री-हत्या के दोष से बच जाउँगा। जब वे आश्रम पहुंचे तो पुत्र को खड़ा पाया, चिरकारी ने हथियार फेंक कर पिता के चरणों को पकड़ लिया और आज्ञा के पूर्ण न कर पाने की क्षमा मांगी। इतने में ऋषि ने अपनी पत्नी को आते देखा। पत्नी को देख गौतम ऋषि की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही।

उन्होने पुत्र को गले से लगा कर कहा "बेटा तुम्हारे स्वभाव के कारण मैं महान अनर्थ से बच  गया।" तब ऋषि ने नीति का उपदेश देते हुए कहा "हर कार्य को बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए। चिरकाल तक सोच-समझ कर किया हुआ काम हमेशा अच्छा फल ही देता है।
- नीतिकथा से प्रस्तुत