Friday, December 27, 2013

ओस की बूँदें...



कुहरे से भरी धुंधली सुबह में,
जब रक्तिम आभा से भरा सूरज निकलता,
तब ओस की नन्ही बूँदें पत्तों के किनारों पर,
मोतियों-सी सज जाती।
जगमगाती सुंदर मोतियों की लड़ी की तरह।
हवा के थपेड़ों को सहकर इधर-उधर,
लुढ़क कर अपने अस्तित्व को बचाती।
किसी उदास मन को जीवन का रहस्य समझाती
कि जब तक हमारा अस्तित्व है,
हमें जीवन की परेशानी को भूलकर ख़ुशी-ख़ुशी जीना होगा।

- साधना

Thursday, December 12, 2013

संगठन में शक्ति होती है

Elephants by the roadside

किसी वन में एक वृक्ष पर गौरैया का एक जोड़ा रहता था। कुछ समय बीतने पर गौरैया ने अंडे दिए, अभी अण्डों से बच्चे निकल भी नहीं पाये थे कि एक मतवाले हाथी ने आकर उस डाली को ही तोड़ डाला जिस पर घोंसला बना था।

गौरैयाका जोड़ा तो किस्मत से बच गया ,पर सारे अंडें फूट गए। गौरैया का जोड़ा दुखी हो रोने लगा, तब पास बैठे कठफोडवा ने उनके दुःख का कारण पूछा। गौरैया ने घौसला हाथी द्वारा तोड़े जाने की बात बताई। कठफोड़वा ने सांत्वना देते हुए कहा "यूँ तो हम हाथी के सामने छोटे से है परन्तु संगठन में शक्ति होती है हम मिलकर हाथी से बदला ले सकते है।"

तब कठफोडवा अपनी मित्र मक्खी व मेंढक के पास गया व हाथी को पराजित करने कि योजना बनाई। योजनानुसार जब हाथी वहाँ से गुजरा तो मक्खी हाथी के कान के पास गुनगुनाने लगी ,हाथी ने मस्ती में आकर अपनी आँखे बंद कर ली। कठफोडवे ने अपनी तेज चोंच से हाथी कि आँखे फोड़ डाली,अँधा हाथी प्यास से व्याकुल हो उठा। तभी मेंढक एक बड़े से गड्ढें के पास जाकर टर्र -टर्र कि आवाज करने लगा। हाथी पानी के भरम में गढ्ढे में जा गिरा और तड़प -तड़प कर मर गया।

अतः नीति बताती है कि समूह में शक्ति होती है। संगठन और समूह -भावना से कार्य करने से बड़े से बड़ा काम सम्भव हो जाता है, और संतोष भी प्राप्त होता है।

- नीतिकथा से प्रस्तुत

टिप्पणी: वर्तमान समय में हमारे परिवार और हमारे राष्ट्र को भी संगठन व समूह-भावना की आवश्यकता है ताकि हम अपने विरोधियों का सामना सशक्त होकर कर सकें और अपने राष्ट्र को मजबूत बना सके।

Monday, December 2, 2013

पुण्य सलिला नर्मदा

Fast flowing river
अमरकंटक के घने जंगलों से,
पर्वतों से निकलते समय तक,
हे पुण्य सलिले नर्मदा,
तुम कितनी शांत और सौम्य होती हो,
धीरे-धीरे लहराती बलखाती,
चट्टानों से टकरा टकरा कर,
अपने पथ को विशाल बनाकर अपने चौड़े पाटों का विस्तार कर,
जन-जीवन की प्यास बुझा निर्झर हो झर-झर आगे बहती जाती,
कहीं धुँआधार का रूप धर लेती,
तो कभी सुन्दर मनोहारी घाटों की अनुपम शोभा बढ़ाती
तुम्हारी उपजाऊ कोख में न जाने कितने जीवन पलते,
जब घुमड़ घुमड़ काले बादल आते,
घनघोर घटाएँ जल बरसातीं,
तब विकराल रूप धर तुम न जाने गाँव,
शहर व प्राणियों को लील आगे बढ़ जातीं,
धीरे-धीरे तुम अशांत समुद्र में मिल गुम हो जातीं,
जहाँ तैरते अनगिनत जहाज...
                                                                           -- साधना