अमरकंटक के घने जंगलों से,
पर्वतों से निकलते समय तक,
हे पुण्य सलिले नर्मदा,
तुम कितनी शांत और सौम्य होती हो,
धीरे-धीरे लहराती बलखाती,
चट्टानों से टकरा टकरा कर,
अपने पथ को विशाल बनाकर अपने चौड़े पाटों का विस्तार कर,
जन-जीवन की प्यास बुझा निर्झर हो झर-झर आगे बहती जाती,
कहीं धुँआधार का रूप धर लेती,
तो कभी सुन्दर मनोहारी घाटों की अनुपम शोभा बढ़ाती
तुम्हारी उपजाऊ कोख में न जाने कितने जीवन पलते,
जब घुमड़ घुमड़ काले बादल आते,
घनघोर घटाएँ जल बरसातीं,
तब विकराल रूप धर तुम न जाने गाँव,
शहर व प्राणियों को लील आगे बढ़ जातीं,
धीरे-धीरे तुम अशांत समुद्र में मिल गुम हो जातीं,
जहाँ तैरते अनगिनत जहाज...
-- साधना
पर्वतों से निकलते समय तक,
हे पुण्य सलिले नर्मदा,
तुम कितनी शांत और सौम्य होती हो,
धीरे-धीरे लहराती बलखाती,
चट्टानों से टकरा टकरा कर,
अपने पथ को विशाल बनाकर अपने चौड़े पाटों का विस्तार कर,
जन-जीवन की प्यास बुझा निर्झर हो झर-झर आगे बहती जाती,
कहीं धुँआधार का रूप धर लेती,
तो कभी सुन्दर मनोहारी घाटों की अनुपम शोभा बढ़ाती
तुम्हारी उपजाऊ कोख में न जाने कितने जीवन पलते,
जब घुमड़ घुमड़ काले बादल आते,
घनघोर घटाएँ जल बरसातीं,
तब विकराल रूप धर तुम न जाने गाँव,
शहर व प्राणियों को लील आगे बढ़ जातीं,
धीरे-धीरे तुम अशांत समुद्र में मिल गुम हो जातीं,
जहाँ तैरते अनगिनत जहाज...
-- साधना
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