Monday, December 21, 2015

काली रातें...

स्याह घनी काली रातों में, 
सुनसान गलियों में,
सन्नाटों को चीरती भयावह आवाज़े,
शायद किसी निर्भया की हो,
पर क्या फर्क पड़ता है?
दिन के उजालो में न्याय मिलता है अपराधी को, 
जेल की सलाखें नहीं
खुले-आम घूमने की आज़ादी
शायद अब स्याह काली रातों की जरूरत ही न हो, 
बेख़ौफ़ घूमते मिल जाये दरिंदे दिन के उजालो में, 
हर गली हर मोड़ पर... 
- साधना 

Friday, December 4, 2015

मेरी मासी...

मासी तुम माँ सी हो,
तुम्हारे निर्मल प्यार में बसता है
हम सबका जीवन,
तुम्हारी उठती-झुकती पलकों में है
जीवन का साँझ-सवेरा,
तुम्हारी ममतामयी मीठी वाणी में है बसी,
शाम को मस्जिद से उठती अजान,
सुबह को पूजा से उठते मंत्रो के स्वर,
जीवन के सारे रिश्ते तुमसे ही,
तुम्ही हो हम सबकी आशा, उम्मीद और विश्वा,
तुमसे मिलकर जीवन में आया नया आत्मविश्वास,
तुम्हारी इबादतों से ही है हम सबका जीवन गुलज़ार...
 - साधना 

Friday, November 20, 2015

माटी...


माटी तेरे रूप अनेक,
कुंभार के हाथों में जा अनेक रूपों में ढल जाती,
माटी का घड़ा बन प्यासों की प्यास बुझाती,
चूल्हे-सिगड़ी का रूप धर
अन्न पकाकर सबकी भोजन-क्षुधा को शांत करती,
मूर्तिकार से मिल सुन्दर मूर्ति बन जाती,
देवरूप में ढलकर भक्तों के मन में भक्ति जगाती,
नन्हें-नन्हें दीपो का रूप धर
हर घर को रोशन करती,
देवालय में पवित्र रोशनी फैला, 
हर मन में भक्ति का प्रकाश फैलाती, 
खेतों में, बगीचों में पानी का साथ पाकर फसल उगाती,
सुन्दर-सुन्दर फूलों-फलों को उपजाती,
मानव पशु-पक्षी सबका पोषण करती,
कभी बीमार तन पर लेप बन दवा बन जाती,
 तो कभी माटी का घड़ा बन पितरों को तृप्ति पहुँचाती,
अंत समय में सबको अपने में विलीन कर 
शांति का एहसास दिलाती, 

- साधना 

Wednesday, September 30, 2015

नारी अधिकार...


नारी तुम कोमल हो, त्याग, पवित्रता, 
ममता की मूरत हो,
प्रेम से हर मन को जीत, 
बड़ी से बड़ी विपदा का सामना करती हो,
अपनी मानसिक शक्ति को दृढ कर, 
तुम जीवन की हर बाधा को हरा देती हो,
अथक परिश्रम से तुम हर राह को
आसान बना देती हो,
लेकिन पुरुष के दैहिक बल के आगे, 
तुम निरीह बन जाती,
तुम्हे अपने अधिकार पूर्ण रूप से 
नहीं देना चाहता ये समाज,
पर अब देना ही होगा समानता का, 
स्वतंत्रता का अधिकार
अन्यथा नारी की तीसरी दृष्टि 
खुलने पर मच जायेगा हाहाकार...
-साधना

Thursday, August 27, 2015

नन्ही खिड़कियाँ

चहार दीवारों से घिरा घर,
ईंट गारे से बना घर, सुन्दर नज़र आता,
घर में कीमती सोफे, झूमर, 
फर्नीचर से अनुपम शोभा बढ़ जाती,
पर सबसे प्यारी होती वे छोटी-छोटी खिड़कियाँ,
जिनसे हरपल खुला भोर का सूरज,
नीला आकाश और ऊँची उड़ान भरता परिंदा नज़र आता,
सुहानी शाम के ढलते ही 
नन्हे झिलमिल सितारे 
और दूधिया रौशनी बिखेरता चाँद नज़र आता,
इन्ही नन्ही नन्ही खिड़कियों से 
सारे संसार का सतरंगी सार नज़र आता...

Monday, July 27, 2015

रंगीन साइकिल


शाम होते ही नन्हे-नन्हे बच्चे सड़को पर,
 दौड़ाते रंगीन साइकिलें,
वहीं सड़क किनारे मटमैले से कपड़े पहनकर,
मज़दूर के बच्चे निहारते 
उन रंगबिरंगी साइकिलों को, 
कभी दौड़ते इस तरफ तो कभी उस तरफ,
नन्हे हाथों से ताली बजा-बजाकर, 
निष्कपट मन से खूब खुश होते, 
उनकी अदा से झलकता उनका भोला बचपन,
वे भी चाहते करना सवारी उस नन्ही साइकिल पर,
पर मन मसोस कर देखते रहते, 
तब उनकी ममतामयी माँ छुपाकर संचय किए धन से
लाकर देती किसी भी तरह पुरानी नन्ही साइकिल और 
खुश हो झूम उठते नन्हे-नन्हे बच्चे... 

Thursday, June 25, 2015

मासूम बच्चे


वे नन्हे बच्चे जो जीवन में कभी नहीं खेल पाते कीमती खिलौनों से,
भूख लगने पर मुट्ठी-भर चने खा, पानी पीकर चुपचाप सो जाते है। 
जिन्हें जीवन में कभी भी तीज-त्योहारों पर नहीं मिल पाते 
कीमती कपडे व तोहफे, 
जिनका सारा संसार छुपा होता है 
उनकी माँ की निश्छल प्रेमपूर्ण हंसी और दुलार में,
अक्सर ऐसे ही बच्चे जीवन की चुनौतियों को स्वीकार कर, 
बड़े होकर बनते है इस संसार में अद्भुत कवि, चित्रकार व महान वैज्ञानिक 
और इस देश के कर्णधार...

Monday, April 27, 2015

अब जाग उठो...



अब जाग उठो धरावासियों, ये धरा तुम्हे पुकार रही,
पुकार रही प्रकृति, मिटा दो इस धरा से गन्दगी का साम्राज्य,
सौगंध उठा लो न रहने देंगे धरती पर गन्दगी, 
न काटेंगे वृक्ष, न उजाड़ेगे घने जंगल, ये बिन मौसम की बारिश, 
कड़कती हुई बिजुरिया,गमी में शीत लहर, 
कही दिल-दहलाने देने वाले भूकंप,
ये परिणाम है इस प्रकृति से मनमाने खिलवाड़ का,
प्रकृति ने सहनशील बन बहुत किया इंतज़ार कि शायद मानव सुधर जाये, 
प्रकृति उतारू है तोड़ने पर अब अपने ही बनाये नियम और बंधन,
अभी भी समय है तुम ना करो अत्याचार,
सुधार कर अपनी आदतें बचा लो 
अपनी आने वाली पीढ़ियों को प्रकृति के कहर से,
उन्हें दो सुन्दर अनमोल प्रकृति का उपहार… 

-साधना 

Wednesday, April 8, 2015

एहसास...


सारा जीवन बीत गया दुनिया भर के रिश्तों,  
रस्मों रिवाज़ों, जिम्मेदारियों को निभाने में
कभी सोच भी न सकी अपने बारे में
आज आँखें बंद कर सोच रही हूँ, मैं कौन हूँ?
शरीर क्या है? हर दिन बदलती त्वचा का बदलाव
पहले नर्म मुलायम सी थी, धीरे धीरे झुर्रियों से भरने लगी है
एहसास होता है हम माटी के पुतले हैं
जो एक दिन धीरे-धीरे माटी में ही मिल जाएँगे...

 - साधना

Monday, March 2, 2015

फागुन के दिन



फागुन की तेज धूप से दिन अलसाये हुए अजगर से हो गए
चारों तरफ सन्नाटा सा है, 
सिर्फ सूखे पत्तों के झड़ने की आवाज सुनाई देती है, 
सड़के सूनी हो चली है, सब कुछ शांत-सा नज़र आता
लेकिन फागुन की रातों में ग्रामीण अंचलों से
फाग के गीतों की सुरीली मस्ती-भरी आवाज, 
मांडल, ढोल व बाँसुरी के मीठे स्वरों को सुन 
थके मांदे लोग भूल जाते है अपनी दिन भर की थकान व सूनापन 
और डूब जाते है आनंद के गहरे समुन्दर में नृत्य करते करते...

- साधना 

Tuesday, February 10, 2015

जीवन



जीवन एक खुली किताब है,जिसके हर पन्ने पर एक नया अध्याय है।
जीवन को पढ़ो,सीखो और सहेज कर रखो।
जीवन अनंत है, पवित्र है, उसकी पवित्रता नज़र आती है चारों और फैली हरियाली में,
फूलों में,फसलों में और सुवासित मंद-मंद पवन में।
जीवन मानव को मिला अनमोल उपहार है उसे लगाना होगा असहाय मानव,
जरूरतमंद लोगों और बुजुर्गों कि सेवा करने में उनकी हर जरुरत को पूरा करने में।
मूक पशु-पक्षियों कि देख-रेख में और अन्याय को दूर करने में
ताकि हम सफल बना सकें अपना जीवन...
- साधना 

Friday, January 23, 2015

नारी जीवन...


नन्ही सी किलकारी गूंजी घर आँगन में जन्म हुआ कन्या का...
धीरे-धीरे बड़ी हुई माता-पिता, भाई के प्यार दुलार में,
अनुशासन में बंध बड़ी हुई,
ब्याह हुआ हुई पराई, 
पति और ससुराल के नियमों में बंध निकला जीवन,
पुत्रवती हो बड़ी प्रसन्न हुई
पर अब था पुत्र का बंधन
हर पल नारी जीवन में सिर्फ बंधन ही बंधन,
चाह कर भी कभी जी न सकी वो मुक्त जीवन...
- साधना