Friday, November 20, 2015

माटी...


माटी तेरे रूप अनेक,
कुंभार के हाथों में जा अनेक रूपों में ढल जाती,
माटी का घड़ा बन प्यासों की प्यास बुझाती,
चूल्हे-सिगड़ी का रूप धर
अन्न पकाकर सबकी भोजन-क्षुधा को शांत करती,
मूर्तिकार से मिल सुन्दर मूर्ति बन जाती,
देवरूप में ढलकर भक्तों के मन में भक्ति जगाती,
नन्हें-नन्हें दीपो का रूप धर
हर घर को रोशन करती,
देवालय में पवित्र रोशनी फैला, 
हर मन में भक्ति का प्रकाश फैलाती, 
खेतों में, बगीचों में पानी का साथ पाकर फसल उगाती,
सुन्दर-सुन्दर फूलों-फलों को उपजाती,
मानव पशु-पक्षी सबका पोषण करती,
कभी बीमार तन पर लेप बन दवा बन जाती,
 तो कभी माटी का घड़ा बन पितरों को तृप्ति पहुँचाती,
अंत समय में सबको अपने में विलीन कर 
शांति का एहसास दिलाती, 

- साधना 

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