पुराने मिट्टी से बनी अब बदरंग सी हो चुकी घर की दीवारे,
याद आती है मुझे अपने बीते हुए कल की
और उन पूर्वजों की जिनके सानिध्य में बीता मेरा खुशनुमा जीवन,
नन्हे-नन्हे झरोखे जिनसे हम कूदकर इधर-उधर पार हुआ करते थे,
उन्ही झरोखों से निहारते थे आकाश गंगा को,
तो कभी सपनो में परियों को,
आज भी वही पवन, पक्षी और चाँद-सूरज है,
जो साक्षी है मेरे बचपन के,
मंद-मंद सुवासित पवन जब मुझे छूती है,
लगता है कोई अपना पास से गुजर गया,
चाँद-सूरज की रौशनी में पूर्वजों के जलाये हुए
दीपक की झिलमिलाहट नज़र आती है,
पूर्वजों के स्वर मुझे मेरी रचनाओं में आशीर्वाद से नज़र आते है,
जब भी छूती हूँ.........
--साधना 'सह्ज'
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