शिवरात्रि का अर्थ है वह रात्रि जो शिव को अतिप्रिय हो, फ़ागुन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है। भगवन शिव की पूजा, जागरण और शिवाभिषेक इस व्रत की विशेषता है। चतुर्दशी के तिथि में चन्द्रमा, सूर्य के समीप रहता है। इसी समय जीवन रूपी चन्द्रमा का शिव रूपी सूर्य के साथ योग मिलन होता है। अतः इस चतुर्दशी को शिवपूजा करने से जीवन में अभीष्ट फल प्राप्त होता है।
भगवान शिव संहार और तमोगुण के देवता है। रात्रि संहार काल की प्रतीक है, उसका प्रवेश होते ही हमारी दैनिक क्रियाओं का अन्त हो जाता है और संपूर्ण विश्व निंद्रा में लीन हो जाता है।
शिवरात्रि का कृष्ण पक्ष में होना साभिप्राय ही है। शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा सबल होता है कृष्ण पक्ष में क्षीण। चन्द्रमा के सबल होने पर संसार के सभी रसवान पदार्थों में वृद्धि होती है और क्षय के साथ क्षीणता आती है। सूर्य कि शक्ति से तामसी शक्तियाँ अपना प्रभाव नहीं दिखा पाती हैं, किन्तु चतुर्दशी की अंधकार से भरी रात्रि में वे अपना प्रभाव दिखाने लगती हैं। सभी तामसी वृत्ति के अधिष्ठाता भगवान शिव हैं, इन्हीं तामसी वृत्तियों के प्रभाव को नष्ट करने के लिए चतुर्दशी को शिवाराधना की जाती है। अध्यात्मिक कार्यों में उपवास करना जरुरी माना गया है। उपवास से ही मन पर नियंत्रण रख कर रात्री जागरण किया जाता है और ॐ नमः शिवाय का जाप किया जाता है।
भगवान शिव अर्धनारीश्वर होकर भी काम विजेता है, गृहस्थ होते हुए भी परम विरक्त है, हलाहल विष-पान के कारण नीलकंठ हो कर भी विष से अलिप्त है, उग्र होते हुए भी सौम्य है, अकिंचन होते हुए भी सर्वेशवर है। भयंकर विषधर नाग और सौम्य चंद्रमा उनके आभूषण है ,मस्तक में प्रलयकालीन अग्नि और सिर पर गंगाधारा उनका अनुपम श्रृंगार है। ये सभी विरोधी भाव हमें विलक्षण समन्वय की शिक्षा देते हैं। इससे विश्व को सह -अस्तित्व अपनाने की शिक्षा मिलती है।
अतः हमें शिवरात्री के महापर्व को बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ समारोहपूर्वक मनाना चाहिए।
- धार्मिक ग्रंथों से प्रस्तुत
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