जेठ की तपती दोपहर में सूरज की किरणें,
प्रचंड रूप धर झुलसा रही जन -जीवन को,
गर्म हवाएँ उड़ा रही धूल और बवंडर,
पृथ्वी के गर्भ में छुपी अनंत ऊष्मा परिणीत हो,
गुलमोहर और अमलतास के चटख रंगो से,
कर रही प्रकृति का मनभावन श्रृंगार।
पशु -पक्षी हाँफ रहे ,नन्ही चिरैया कांप रही
न दाना न पानी दिखता, न नदी न तालाब,
सारा दिन घर भट्टी सा तपता ,कोई न घर के बाहर दिखता
दिन भर की तपन के बाद रातें भी बैचैन करती
पर धीरे-धीरे चन्द्रमा की शीतल किरणें,
दिलाती तपते तन-मन को शीतलता का अहसास...
- साधना
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