सावन की घटाओं से घिरे बादलों से झरते पानी में
लोक गीत गुनगुनाती औरतें, धान के खेतों में
झुक कर परहा लगाती, रंग-बिरंगी घुटनों तक लिपटी साड़ियों में
मिटटी से सने हाथों से धान रोपती, साँझ ढलने पर चूल्हे से जूझ
खाना पकाती, घर परिवार की हर जरुरत को पूरा करती
फिर थक कर सोते वक्त देखती सोने के दानों से भरी
सुनहरी लहलहाती फसलों के स्वप्न...
- साधना
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