महर्षि गौतम का एक महान ज्ञानी पुत्र था। उसका नाम था चिरकारी। वह किसी भी कार्य को करने से पहले उस पर देर तक विचार किया करता था। सोचने की आदत के कारण हर काम में देर हो जाती थी, इसलिए लोग उसे आलसी व मंदबुद्धि कहते थे।
एक दिन की बात है, महर्षि गौतम की स्त्री से एक महान अपराध हो गया। जब ऋषि को पता चला तो वे बहुत कुपित हुए और अपने पुत्र को कहा कि ''बेटा, तू अपनी दुष्कर्मा माता का वध कर डाल।" इस प्रकार बिना विचार किय, ऋषि अपने पुत्र को आदेश देकर स्वयं वन को चले गए।
चिरकारी ने बहुत अच्छा कह कर पिता की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। पर अपने स्वभाव के अनुसार वह सोचता रहा। उसने सोचा पिता की आज्ञा का पालन करूँ या माता की रक्षा। पिता की आज्ञा का पालन करना पुत्र का परम धर्म है और माता की रक्षा करना भी प्रधान धर्म है। उसे कभी पिता का पक्ष उचित लगता तो कभी माता का पक्ष। चिरकारी इसी उलझन में पड़ा रहा।
उधर वन में जब ऋषि का क्रोध शांत हुआ तो उन्हें अपने अनुचित निर्णय पर बहुत पछतावा हुआ, वे पत्नी की वध की कल्पना कर रो पड़े। मन ही मन पछताने लगे कि ''आज मेरे अविवेक ने महान अनर्थ कर डाला ,मेरी पत्नी तो निर्दोष है। फिर उन्हें अपने पुत्र के स्वभाव का ध्यान आया। वे सोचने लगे यदि मेरे पुत्र ने आज विलम्ब किया होगा तो मैं स्त्री-हत्या के दोष से बच जाउँगा। जब वे आश्रम पहुंचे तो पुत्र को खड़ा पाया, चिरकारी ने हथियार फेंक कर पिता के चरणों को पकड़ लिया और आज्ञा के पूर्ण न कर पाने की क्षमा मांगी। इतने में ऋषि ने अपनी पत्नी को आते देखा। पत्नी को देख गौतम ऋषि की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही।
उन्होने पुत्र को गले से लगा कर कहा "बेटा तुम्हारे स्वभाव के कारण मैं महान अनर्थ से बच गया।" तब ऋषि ने नीति का उपदेश देते हुए कहा "हर कार्य को बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए। चिरकाल तक सोच-समझ कर किया हुआ काम हमेशा अच्छा फल ही देता है।
एक दिन की बात है, महर्षि गौतम की स्त्री से एक महान अपराध हो गया। जब ऋषि को पता चला तो वे बहुत कुपित हुए और अपने पुत्र को कहा कि ''बेटा, तू अपनी दुष्कर्मा माता का वध कर डाल।" इस प्रकार बिना विचार किय, ऋषि अपने पुत्र को आदेश देकर स्वयं वन को चले गए।
चिरकारी ने बहुत अच्छा कह कर पिता की आज्ञा को स्वीकार कर लिया। पर अपने स्वभाव के अनुसार वह सोचता रहा। उसने सोचा पिता की आज्ञा का पालन करूँ या माता की रक्षा। पिता की आज्ञा का पालन करना पुत्र का परम धर्म है और माता की रक्षा करना भी प्रधान धर्म है। उसे कभी पिता का पक्ष उचित लगता तो कभी माता का पक्ष। चिरकारी इसी उलझन में पड़ा रहा।
उधर वन में जब ऋषि का क्रोध शांत हुआ तो उन्हें अपने अनुचित निर्णय पर बहुत पछतावा हुआ, वे पत्नी की वध की कल्पना कर रो पड़े। मन ही मन पछताने लगे कि ''आज मेरे अविवेक ने महान अनर्थ कर डाला ,मेरी पत्नी तो निर्दोष है। फिर उन्हें अपने पुत्र के स्वभाव का ध्यान आया। वे सोचने लगे यदि मेरे पुत्र ने आज विलम्ब किया होगा तो मैं स्त्री-हत्या के दोष से बच जाउँगा। जब वे आश्रम पहुंचे तो पुत्र को खड़ा पाया, चिरकारी ने हथियार फेंक कर पिता के चरणों को पकड़ लिया और आज्ञा के पूर्ण न कर पाने की क्षमा मांगी। इतने में ऋषि ने अपनी पत्नी को आते देखा। पत्नी को देख गौतम ऋषि की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही।
उन्होने पुत्र को गले से लगा कर कहा "बेटा तुम्हारे स्वभाव के कारण मैं महान अनर्थ से बच गया।" तब ऋषि ने नीति का उपदेश देते हुए कहा "हर कार्य को बहुत सोच-समझ कर करना चाहिए। चिरकाल तक सोच-समझ कर किया हुआ काम हमेशा अच्छा फल ही देता है।
- नीतिकथा से प्रस्तुत
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