मानवता बिक चुकी है,
चारों ओर अराजकता का राज है,
साधू के वेष में शैतानों का बोलबाला है,
इस छल -कपट से भरी दुनिया में,
आस्था-विश्वास जैसे शब्द निरर्थक हो गए हैं,
मन भूल जाना चाहता है ऐसे शब्दों को,
जो अब सिर्फ किताबों में रह गए हैं,
हर तरफ झूठ, अनैतिकता और वहशीपन का बोलबाला है,
मानव इंसानियत खो चुका है, हर तरफ सिसकियों का राज है,
इस आधुनिक समाज का सृजनकर्ता बन,
मानव ने चारों ओर फैला दी है बर्बादी,
जिसमें नई-नई इमारतें,
स्वर्ग से सुन्दर उपवन तो हैं,
पर प्यार, करुणा व दया से भरे हुए इन्सान विलुप्त हो गए हैं,
हर गली चौराहों पर मौजूद है वहशी दरिंदें, जो अपनों को ही लूट-खसोट रहे हैं,
पृथ्वी भी शर्मिंदा हो जल समाधि लेने को उतावली सी है,
ज़रुरत है समर्थ व सक्षम बन अराजकता का संहार करने की…
- साधना
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