कुछ समय पहले गर्मी का मौसम आते ही स्कूल की छुट्टियाँ हो जाती,
घर-आँगन भर उठते बच्चों की शरारत से,
गलियों में आम, इमली, कबीट व गन्ना गंडेरी
बेचनेवालों की आवाजाही नज़र आती,
साँझ होते ही बच्चे नदी-पहाड़, पकड़म-पाटी खेलते नज़र आते,
घर के सामने तांगा या रिक्शा आकर रुकता,
कभी मौसी, कभी बुआ-फूफा, कभी चाची-मामी के आने की खबर आती,
घर का हर कोना खुशी और उल्लास से भर उठता,
दोपहर में सभी महिलाएं हँसती-बतियाती और
पापड़, बड़ी, अचार बनाती नज़र आती।
रात में चारपाई बिछा तारों को निहारते हुए,
अपने सुख-दुख के किस्से सुनाती।
पर इस आधुनिक जीवन ने घर-आँगन की खुशियों को छीन लिया,
अब आम, इमली की जगह वीडियो-गेम, टी.वी. व आइसक्रीम है।
घर सूने हो चले है, अपनापन भी नहीं रहा।
अब किसी के आने की आहट सुनाई नहीं देती।
अब सिर्फ सूने मन व सूने घर नज़र आते है।
- साधना
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