
घनघोर कारी बदरिया तुम छा गयी हो चहुँ ओर
घुमड़-घुमड़ कर बरसो चहुँ ओर,
भिगो दो खेत खलिहानों को,
सूखी दरकी जमीन को,
पैदा कर दो नई आशा उमंगो को,
धरती की कोख़ में छुपे हुए बीजों को अंकुरित कर,
विशाल रेगिस्तान में बरस भिगो दो
उस प्रेम विहीन मन को,
जो मन ही मन प्रेम में भीगना चाहता है पर मौन है,
बुझा दो नफरत,अहंकार और अहम् की जलती लपटों को,
जो अधिकतर दिलों में जल रही है,
फिर से बरस-बरस कर
एहसास पैदा करो जन-मन में जीवित होने का,
घुमड़-घुमड़ के बरसो ना कारी बदरिया...
-- साधना 'सहज'