Tuesday, November 27, 2018

जब भी छूती हूँ....


जब भी छूती हूँ 
पुराने मिट्टी से बनी अब बदरंग सी हो चुकी घर की दीवारे,
याद आती है मुझे अपने बीते हुए कल की 
और उन पूर्वजों की जिनके सानिध्य में बीता मेरा खुशनुमा जीवन,
नन्हे-नन्हे झरोखे जिनसे हम कूदकर इधर-उधर पार हुआ करते थे,
उन्ही झरोखों से निहारते थे आकाश गंगा को,
 तो कभी सपनो में परियों को,
आज भी वही पवन, पक्षी और चाँद-सूरज है,
जो साक्षी है मेरे बचपन के,
मंद-मंद सुवासित पवन जब मुझे छूती है,
लगता है कोई अपना पास से गुजर गया,
चाँद-सूरज की रौशनी में पूर्वजों के जलाये हुए 
दीपक की झिलमिलाहट नज़र आती है,
पूर्वजों के स्वर मुझे मेरी रचनाओं में आशीर्वाद से नज़र आते है,
जब भी छूती हूँ......... 

--साधना 'सह्ज' 

Tuesday, August 7, 2018

अंतिम समय...

अंतिम समय में जब शरीर शांत-क्लांत होगा,
थक कर पलके निढाल हो बंद हो जाएगी
बंद आँखों के सामने चलचित्र के समान 
गुजरेगी जीवन भर की यात्रा
कि हमने कब भला किया,
कब बुरा किया,
देखे कैसे-कैसे सपने
कब मन बैचैन रहा,
कब हरषाया 
कभी उत्सुकता से भरे पल,
कभी झूठ, नफरत, घृणा से भरे पल
पर सच तो यह है की 
बंद आँखों से निकल पड़ेंगे 
अविरल अश्रु और दिल से सबसे पहले 
समाप्त हो जायेगे जीवन भर के 
झूठ, नफरत और घृणा से भरे पल... 
- साधना 'सहज' 

Saturday, June 30, 2018

कारी बदरिया...

B&W Cumulous Cloud
घनघोर कारी बदरिया तुम छा गयी हो चहुँ ओर 
घुमड़-घुमड़ कर बरसो चहुँ ओर, 
भिगो दो खेत खलिहानों को,
सूखी दरकी जमीन को, 
पैदा कर दो नई आशा उमंगो को,
धरती की कोख़ में छुपे हुए बीजों को अंकुरित कर,
विशाल रेगिस्तान में बरस भिगो दो
उस प्रेम विहीन मन को,
जो मन ही मन प्रेम में भीगना चाहता है पर मौन है,
बुझा दो नफरत,अहंकार और अहम् की जलती लपटों को,
जो अधिकतर दिलों में जल रही है,
फिर से बरस-बरस कर
एहसास पैदा करो जन-मन में जीवित होने का,
घुमड़-घुमड़ के बरसो ना कारी बदरिया... 


-- साधना 'सहज'

Saturday, March 17, 2018

सारी उम्र...

सारी उम्र उपदेशों को सच मानकर जीवन जिया,
कभी किसी का अपमान नहीं किया, 
किसी को जान-बूझकर परेशान नहीं किया,
हर ज़रूरतमंद की मदद की, 
झूठ बोलना स्वीकार नहीं किया, 
सद-विचारों का सम्मान किया,
जन्म के बाद मृत्यु शाश्वत सत्य है ये भी माना,
पर हर पल जीवन में अपमान ही मिला,
मुझे डर लगता है मृत्यु से कही,
उस लोक में भी ऐसे ही लोग ना मिल जाए,
जो अपनों को ही छलते हो, अपमानित करते हो

-- साधना ' सहज '