Monday, January 6, 2014

मन की परतें


मेरे मन तू चल,
कभी तेज़-तेज़ कभी मंद-मंद,
कभी मंथर गति से चल।

तू रुकता, रुक जाता जीवन,
देह क्लांत सी हो जाती,
वाणी मौन हो जाती,
उठती शंका-कुशंका,
पर मेरे मन तू उदास न हो।

नभ में चमकते सूरज चंदा और सितारे,
समुद्र में उठने वाली लहरें...
खग-विहग सब के सब तुझे पुकारें।

तू अशांत न हो, तू क्लांत न हो,
तोड़ हर बंधन को,
बस तू बहता चल।

अविरल जल सा, अपनी गति से,
बस झरने सा, निर्झर हो,
झर झर बहता चल...।

- साधना

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