Friday, February 21, 2014

छाया बसंत
















आया बसंत, छाया बसंत,
गुनगुनाया निसर्ग
धरती ने ओढ़ी चुनर नई,
कहीं पीली कहीं चटक हरी,
बुलबुल चहकी कोयल कूकी,
कलियों ने घूँघट के पट खोले,
भौंरा हो मदमस्त, गुनगुनाता फिरता,
कभी कुंद तो कभी गुलाब का रस पीता
नन्ही तितली पंख पसारे उड़ती फिरती,
कभी लाल नीले पीले फूलों को तकती
फसलें हवा के झोंकों से,
लरज -लरज लहराती
चटकीली सोने सी चमचमाती धूप,
मन में उत्साह-उमंग जगाती
गुदगुदा जाता हर कवि मन को बसंत,
हर प्रेमी के मन में आस जगाता
प्रस्फुटित हो जाते सुर सारे,
प्रकृति स्वयं राग बसंत गुनगुनाती
आया बसंत छाया बसंत...
- साधना

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