Monday, December 21, 2015

काली रातें...

स्याह घनी काली रातों में, 
सुनसान गलियों में,
सन्नाटों को चीरती भयावह आवाज़े,
शायद किसी निर्भया की हो,
पर क्या फर्क पड़ता है?
दिन के उजालो में न्याय मिलता है अपराधी को, 
जेल की सलाखें नहीं
खुले-आम घूमने की आज़ादी
शायद अब स्याह काली रातों की जरूरत ही न हो, 
बेख़ौफ़ घूमते मिल जाये दरिंदे दिन के उजालो में, 
हर गली हर मोड़ पर... 
- साधना 

No comments:

Post a Comment