Saturday, May 18, 2013

संध्या (साँझ)

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धीरे-धीरे सूरज ढलने लगा,
शांत झील में कुछ नावें तैर रही थी,
तभी लगा सुंदर-सलोनी सी संध्या कुछ अलसाई सी,
थकी-सी, पहनकर सिंदूरी कुछ मटमैली सी,
चमकीली सी साड़ी उतर गयी शांत झील के शीतल जल में,
मैं भी शीतल जल में डूब अपनी थकान मिटाना चाहती थी,
पर ऐसा न हो सका क्योंकि मैं इस जग की थकान से परेशान थी,
संध्या रात भर डूबी रही शीतल जल में करती रही जल-क्रीड़ा करती रही,
सुबह-सुबह चिड़ियों के कलरव से,
ठंडे-ठंडे जल से अपने नयनों को धोकर लजाती,
बलखाती फिर अपनी सिंदूरी साड़ी की,
अलौकिक छटा को बिखराती झील के जल से निकली संध्या,
उज्ज्वल प्रकाश फैला इस सृष्टि को जगमगाने के लिए... 
- साधना

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