
सुबह होते ही पीठ पर बड़ा सा झोला टांग कर,
निकल पड़ते नन्हें-नन्हें बच्चे,
घर से कचरा पेटी की तरफ सिर्फ इस आस में
कि जो आग उनके पेट में जल रही है वो शांत हो पाएगी,
कभी चुंबक को कचरे में फेंक लोहे के टुकड़े ढूंढते,
तो कभी लकड़ी से कूड़ा हटा प्लास्टिक के टुकड़े ढूंढते,
बचपन मजबूर है तन ढकने के लिए वस्त्र पाने व पेट भरने के लिए,
नन्ही-नन्ही आशाएँ जिनका समय है आगे बढ़नेका वे ही मजबूर है दुनियादारी का बोझ उठाने के लिए,
एक मजबूर माँ को उसका छोटा-सा बेटा समझाता है
माँ परेशान मत हो, अपनी ज़िंदगी तो बस एक कूड़े का ढेर है,
हमें यही अपनी ज़िंदगी बिताकर यही मर जाना है।
- साधना
सच के करीब।
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